कुछ है कि जो घर दे नहीं पाता है किसी को
वर्ना कोई ऐसे तो सफ़र में नहीं रहता
उन से कह दो मुझे ख़ामोश ही रहने दे ‘वसीम’
लब पे आएगी तो हर बात गिराँ गुज़रेगी
मैं उस को आँसुओं से लिख रहा हूँ
कि मेरे ब’अद कोई पढ़ न पाए
किसी ने रख दिए ममता-भरे दो हाथ क्या सर पर
मिरे अंदर कोई बच्चा बिलक कर रोने लगता है
इसी ख़याल से पलकों पे रुक गए आँसू
तिरी निगाह को शायद सुबूत-ए-ग़म न मिले
ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समुंदरों ही के लहजे में बात करता है
होंटों को रोज़ इक नए दरिया की आरज़ू
ले जाएगी ये प्यास की आवारगी कहाँ
भरे मकाँ का भी अपना नशा है क्या जाने
शराब-ख़ाने में रातें गुज़ारने वाला
इन्हें तो ख़ाक में मिलना ही था कि मेरे थे
ये अश्क कौन से ऊँचे घराने वाले थे
आज पी लेने दे जी लेने दे मुझ को साक़ी
कल मिरी रात ख़ुदा जाने कहाँ गुज़रेगी