आज पी लेने दे साक़ी मुझे जी लेने दे
कल मिरी रात ख़ुदा जाने कहाँ गुज़रेगी
सफ़र के साथ सफ़र के नए मसाइल थे
घरों का ज़िक्र तो रस्ते में छूट जाता था
मोहब्बत के घरों के कच्चे-पन को ये कहाँ समझें
इन आँखों को तो बस आता है बरसातें बड़ी करना
तमाम दिन की तलब राह देखती होगी
जो ख़ाली हाथ चले हो तो घर नहीं जाना
वो ग़म अता किया दिल-ए-दीवाना जल गया
ऐसी भी क्या शराब कि पैमाना जल गया
लहू न हो तो क़लम तर्जुमाँ नहीं होता
हमारे दौर में आँसू ज़बाँ नहीं होता
रख देता है ला ला के मुक़ाबिल नए सूरज
वो मेरे चराग़ों से कहाँ बोल रहा है