वो माथा का मतला हो कि होंठों के दो मिसरे
बचपन से ग़ज़ल ही मेरी महबूबा रही है
महलों में हम ने कितने सितारे सजा दिए
लेकिन ज़मीं से चाँद बहुत दूर हो गया
मैं तमाम तारे उठा उठा के ग़रीब लोगों में बाँट दूँ
वो जो एक रात को आसमाँ का निज़ाम दे मिरे हाथ में
ये ज़ाफ़रानी पुलओवर उसी का हिस्सा है
कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे
दिल उजड़ी हुई एक सराए की तरह है
अब लोग यहाँ रात जगाने नहीं आते
वो अब वहाँ है जहाँ रास्ते नहीं जाते
मैं जिस के साथ यहाँ पिछले साल आया था
पहचान अपनी हम ने मिटाई है इस तरह
बच्चों में कोई बात हमारी न आएगी
कमरे वीराँ आँगन ख़ाली फिर ये कैसी आवाज़ें
शायद मेरे दिल की धड़कन चुनी है इन दीवारों में
जिस को देखो मिरे माथे की तरफ़ देखता है
दर्द होता है कहाँ और कहाँ रौशन है
फूलों में ग़ज़ल रखना ये रात की रानी है
इस में तिरी ज़ुल्फ़ों की बे-रब्त कहानी है