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बशीर बद्र के चुनिंदा शेर

यारो नए मौसम ने ये एहसान किए हैं
अब याद मुझे दर्द पुराने नहीं आते


कभी तो शाम ढले अपने घर गए होते
किसी की आँख में रह कर सँवर गए होते


चराग़ों को आँखों में महफ़ूज़ रखना
बड़ी दूर तक रात ही रात होगी


कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं
कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की


मुझे मालूम है उस का ठिकाना फिर कहाँ होगा
परिंदा आसमाँ छूने में जब नाकाम हो जाए


अहबाब भी ग़ैरों की अदा सीख गए हैं
आते हैं मगर दिल को दुखाने नहीं आते


किसी ने चूम के आँखों को ये दुआ दी थी
ज़मीन तेरी ख़ुदा मोतियों से नम कर दे


वो बड़ा रहीम ओ करीम है मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो मिरी दुआ में असर न हो


वो इत्र-दान सा लहजा मिरे बुज़ुर्गों का
रची-बसी हुई उर्दू ज़बान की ख़ुश्बू


ग़ज़लों का हुनर अपनी आँखों को सिखाएँगे
रोएँगे बहुत लेकिन आँसू नहीं आएँगे


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By: Bashir Badr

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