ये सानेहे दिल-ए-ग़म-गीं हुआ ही करते हैं
न इश्क़ ही की ख़ता है न हुस्न ही का क़ुसूर
अहल-ए-ग़म तुम को मुबारक हो फ़ना-आमादगी
लेकिन ईसार-ए-मोहब्बत जान दे देना नहीं
तुझ से हिजाब क्या मगर ऐ हम-नशीं न पूछ
उस दर्द-ए-हिज्र को जो शब-ए-ग़म उठा नहीं
तर्क-ए-मोहब्बत करने वालो कौन ऐसा जुग जीत लिया
इश्क़ से पहले के दिन सोचो कौन बड़ा सुख होता था
ऐ मज़ाहिब के ख़ुदा तेरी मशिय्यत जो भी हो
इश्क़ को दीगर ख़ुदा दीगर मशिय्यत चाहिए
ले उड़ी तुझ को निगाह-ए-शौक़ क्या जाने कहाँ
तेरी सूरत पर भी अब तेरा गुमाँ होता नहीं
मिरे दिल से कभी ग़ाफ़िल न हों ख़ुद्दाम-ए-मय-ख़ाना
ये रिंद-ए-ला-उबाली बे-पिए भी तो बहकता है
ख़राब हो के भी सोचा किए तिरे महजूर
यही कि तेरी नज़र है तिरी नज़र फिर भी
ये माना इंक़लाब-ए-ज़िंदगी में लाख ख़तरे हैं
तमन्ना फिर भी है ये ज़िंदगी ज़ेर-ओ-ज़बर होती
ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा उसी का है जहाँ में तुझ को
देख कर भी जो लिए हसरत-ए-दीदार चला