loader image

फ़िराक़ गोरखपुरी के चुनिंदा शेर

अब याद-ए-रफ़्तगाँ की भी हिम्मत नहीं रही
यारों ने कितनी दूर बसाई हैं बस्तियाँ


तबीअत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं


मैं देर तक तुझे ख़ुद ही न रोकता लेकिन
तू जिस अदा से उठा है उसी का रोना है


रोने को तो ज़िंदगी पड़ी है
कुछ तेरे सितम पे मुस्कुरा लें


सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के ‘फ़िराक़’
क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया


जिस में हो याद भी तिरी शामिल
हाए उस बे-ख़ुदी को क्या कहिए


आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-असरो
जब भी उन को ध्यान आएगा तुम ने ‘फ़िराक़’ को देखा है


पर्दा-ए-लुत्फ़ में ये ज़ुल्म-ओ-सितम क्या कहिए
हाए ज़ालिम तिरा अंदाज़-ए-करम क्या कहिए


आज बहुत उदास हूँ
यूँ कोई ख़ास ग़म नहीं


देवताओं का ख़ुदा से होगा काम
आदमी को आदमी दरकार है


985

Add Comment

By: Firaq Gorakhpuri

© 2023 पोथी | सर्वाधिकार सुरक्षित

Do not copy, Please support by sharing!