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फ़िराक़ गोरखपुरी के चुनिंदा शेर

तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है
उतर गया रग-ए-जाँ में ये नेश्तर फिर भी


तिरी निगाह सहारा न दे तो बात है और
कि गिरते गिरते भी दुनिया सँभल तो सकती है


मैं आसमान-ए-मोहब्बत से रुख़्सत-ए-शब हूँ
तिरा ख़याल कोई डूबता सितारा है


ज़िक्र था रंग-ओ-बू का और दिल में
तेरी तस्वीर उतरती जाती थी


सच तो ये है बड़े आराम से हूँ
तेरे हर लहज़ा सताने की क़सम


माइल-ए-बेदाद वो कब था ‘फ़िराक़’
तू ने उस को ग़ौर से देखा नहीं


इनायत की करम की लुत्फ़ की आख़िर कोई हद है
कोई करता रहेगा चारा-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर कब तक


किसी की बज़्म-ए-तरब में हयात बटती थी
उमीद-वारों में कल मौत भी नज़र आई


अभी तो कुछ ख़लिश सी हो रही है चंद काँटों से
इन्हीं तलवों में इक दिन जज़्ब कर लूँगा बयाबाँ को


ख़ुद मुझ को भी ता-देर ख़बर हो नहीं पाई
आज आई तिरी याद इस आहिस्ता-रवी से


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By: Firaq Gorakhpuri

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