इश्क़ फिर इश्क़ है जिस रूप में जिस भेस में हो
इशरत-ए-वस्ल बने या ग़म-ए-हिज्राँ हो जाए
हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है
नई नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी
बद-गुमाँ हो के मिल ऐ दोस्त जो मिलना है तुझे
ये झिझकते हुए मिलना कोई मिलना भी नहीं
इश्क़ अभी से तन्हा तन्हा
हिज्र की भी आई नहीं नौबत
वक़्त-ए-पीरी दोस्तों की बे-रुख़ी का क्या गिला
बच के चलते हैं सभी गिरती हुई दीवार से
लाई न ऐसों-वैसों को ख़ातिर में आज तक
ऊँची है किस क़दर तिरी नीची निगाह भी
क्या जानिए मौत पहले क्या थी
अब मेरी हयात हो गई है
मेरी घुट्टी में पड़ी थी हो के हल उर्दू ज़बाँ
जो भी मैं कहता गया हुस्न-ए-बयाँ बनता गया
ख़ुश भी हो लेते हैं तेरे बे-क़रार
ग़म ही ग़म हो इश्क़ में ऐसा नहीं
किस लिए कम नहीं है दर्द-ए-फ़िराक़
अब तो वो ध्यान से उतर भी गए