इक्का-दुक्का सदा-ए-ज़ंजीर
ज़िंदाँ में रात हो गई है
उसी की शरह है ये उठते दर्द का आलम
जो दास्ताँ थी निहाँ तेरे आँख उठाने में
क़फ़स से छुट के वतन का सुराग़ भी न मिला
वो रंग-ए-लाला-ओ-गुल था कि बाग़ भी न मिला
इस पुर्सिश-ए-करम पे तो आँसू निकल पड़े
क्या तू वही ख़ुलूस सरापा है आज भी
उट्ठी है चश्म-ए-साक़ी-ए-मय-ख़ाना बज़्म पर
ये वक़्त वो नहीं कि हलाल-ओ-हराम देख
मुद्दतें क़ैद में गुज़रीं मगर अब तक सय्याद
हम असीरान-ए-क़फ़स ताज़ा गिरफ़्तार से हैं
दिल-ए-वारफ़्ता-ए-दीदार की अल्लाह रे मह्विय्यत
तसव्वुर में तिरे वो तेरी सूरत भूल जाता है
तुम्हीं सच सच बताओ कौन था शीरीं के पैकर में
कि मुश्त-ए-ख़ाक की हसरत में कोई कोह-कन क्यों हो
जहाँ में थी बस इक अफ़्वाह तेरे जल्वों की
चराग़-ए-दैर-ओ-हरम झिलमिलाए हैं क्या क्या
तर्ग़ीब-ए-गुनाह लहज़ा लहज़ा
अब रात जवान हो गई है