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फ़िराक़ गोरखपुरी के चुनिंदा शेर

कभी हो सका तो बताऊँगा तुझे राज़-ए-आलम-ए-ख़ैर-ओ-शर
कि मैं रह चुका हूँ शुरूअ’ से गहे ऐज़्द-ओ-गहे अहरमन


वो फ़ुसूँ फूँका कि वहशी भी मोहज़्ज़ब हो गए
कर गया क्या सेहर माना इश्क़ बाज़ीगर न था


तमाम शबनम-ओ-गुल है वो सर से ता-ब-क़दम
रुके रुके से कुछ आँसू रुकी रुकी सी हँसी


तसव्वुर में तुझे ज़ौक़-ए-हम-आग़ोशी ने भींचा था
बहारें कट गई हैं आज तक पहलू महकता है


उसी दुनिया के कुछ नक़्श-ओ-निगार अशआ’र हैं मेरे
जो पैदा हो रही है हक़्क़-ओ-बातिल के तसादुम से


फ़र्श-ए-मय-ख़ाना पे जलते चले जाते हैं चराग़
दीदनी है तिरी आहिस्ता-रवी ऐ साक़ी


जन्नत-ए-सूफ़िया निसार दहर की मुश्त-ए-ख़ाक पर
आशिक़-ए-अर्ज़-ए-पाक को दावत-ए-ला-मकाँ न दे


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By: Firaq Gorakhpuri

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