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फ़िराक़ गोरखपुरी के चुनिंदा शेर

वक़्त-ए-ग़ुरूब आज करामात हो गई
ज़ुल्फ़ों को उस ने खोल दिया रात हो गई


‘ग़ालिब’ ओ ‘मीर’ ‘मुसहफ़ी’
हम भी ‘फ़िराक़’ कम नहीं


‘फ़िराक़’ दौड़ गई रूह सी ज़माने में
कहाँ का दर्द भरा था मिरे फ़साने में


तिरा ‘फ़िराक़’ तो उस दिन तिरा फ़िराक़ हुआ
जब उन से प्यार किया मैं ने जिन से प्यार नहीं


मैं आज सिर्फ़ मोहब्बत के ग़म करूँगा याद
ये और बात कि तेरी भी याद आ जाए


तिरा विसाल बड़ी चीज़ है मगर ऐ दोस्त
विसाल को मिरी दुनिया-ए-आरज़ू न बना


ऐ भूल न सकने वाले तुझ को
भूले न रहें तो क्या करें हम


माज़ी के समुंदर में अक्सर यादों के जज़ीरे मिलते हैं
फिर आओ वहीं लंगर डालें फिर आओ उन्हें आबाद करें


कहाँ का वस्ल तन्हाई ने शायद भेस बदला है
तिरे दम भर के मिल जाने को हम भी क्या समझते हैं


अहबाब से रखता हूँ कुछ उम्मीद-ए-ख़ुराफ़ात
रहते हैं ख़फ़ा मुझ से बहुत लोग इसी से


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By: Firaq Gorakhpuri

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