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फ़िराक़ गोरखपुरी के चुनिंदा शेर

आज तक सुब्ह-ए-अज़ल से वही सन्नाटा है
इश्क़ का घर कभी शर्मिंदा-ए-मेहमाँ न हुआ


इस की ज़ुल्फ़ आरास्ता पैरास्ता
इक ज़रा सी बरहमी दरकार है


हम-आहंगी भी तेरी दूरी-ए-क़ुर्बत-नुमा निकली
कि तुझ से मिल के भी तुझ से मुलाक़ातें नहीं होतीं


तो एक था मिरे अशआ’र में हज़ार हुआ
उस इक चराग़ से कितने चराग़ जल उठे


लुत्फ़-ओ-सितम वफ़ा जफ़ा यास-ओ-उमीद क़ुर्ब-ओ-बोद
इश्क़ की उम्र कट गई चंद तवहहुमात में


इक फ़ुसूँ-सामाँ निगाह-ए-आश्ना की देर थी
इस भरी दुनिया में हम तन्हा नज़र आने लगे


सरहद-ए-ग़ैब तक तुझे साफ़ मिलेंगे नक़्श-ए-पा
पूछ न ये फिरा हूँ मैं तेरे लिए कहाँ कहाँ


दिल-ए-ग़म-गीं की कुछ महवीय्यतें ऐसी भी होती हैं
कि तेरी याद का आना भी ऐसे में खटकता है


नई ज़मीन नया आसमाँ नई दुनिया
अजीब शय ये तिलिस्म ख़याल होता है


वो कुछ रूठी हुई आवाज़ में तज्दीद-ए-दिल-दारी
नहीं भूला तिरा वो इल्तिफ़ात-ए-सर-गिराँ अब तक


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By: Firaq Gorakhpuri

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