शीशे के इस तरफ़ से मैं सब को तक रहा हूँ
मरने की भी किसी को फ़ुर्सत नहीं है मुझ में
रखो दैर-ओ-हरम को अब मुक़फ़्फ़ल
कई पागल यहाँ से भाग निकले
दो जहाँ से गुज़र गया फिर भी
मैं रहा ख़ुद को उम्र भर दरपेश
बहुत कतरा रहे हू मुग़्बचों से
गुनाह-ए-तर्क-ए-बादा कर लिया क्या
ज़माना था वो दिल की ज़िंदगी का
तिरी फ़ुर्क़त के दिन लाऊँ कहाँ से
राएगाँ वस्ल में भी वक़्त हुआ
पर हुआ ख़ूब राएगाँ जानाँ
मैं ले के दिल के रिश्ते घर से निकल चुका हूँ
दीवार-ओ-दर के रिश्ते दीवार-ओ-दर में होंगे
ये पैहम तल्ख़-कामी सी रही क्या
मोहब्बत ज़हर खा कर आई थी क्या
मिरी शराब का शोहरा है अब ज़माने में
सो ये करम है तो किस का है अब भी आ जाओ
मरहम-ए-हिज्र था अजब इक्सीर
अब तो हर ज़ख़्म भर गया होगा