इतना ख़ाली था अंदरूँ मेरा
कुछ दिनों तो ख़ुदा रहा मुझ में
मेरी हर बात बे-असर ही रही
नक़्स है कुछ मिरे बयान में क्या
रोया हूँ तो अपने दोस्तों में
पर तुझ से तो हँस के ही मिला हूँ
हम कहाँ और तुम कहाँ जानाँ
हैं कई हिज्र दरमियाँ जानाँ
हैं दलीलें तिरे ख़िलाफ़ मगर
सोचता हूँ तिरी हिमायत में
जानिए उस से निभेगी किस तरह
वो ख़ुदा है मैं तो बंदा भी नहीं
अब तो उस के बारे में तुम जो चाहो वो कह डालो
वो अंगड़ाई मेरे कमरे तक तो बड़ी रूहानी थी
आज बहुत दिन ब’अद मैं अपने कमरे तक आ निकला था
जूँ ही दरवाज़ा खोला है उस की ख़ुश्बू आई है
उस के होंटों पे रख के होंट अपने
बात ही हम तमाम कर रहे हैं
हमारी ही तमन्ना क्यूँ करो तुम
तुम्हारी ही तमन्ना क्यूँ करें हम