मुझ को तो कोई टोकता भी नहीं
यही होता है ख़ानदान में क्या
उस ने गोया मुझी को याद रखा
मैं भी गोया उसी को भूल गया
गो अपने हज़ार नाम रख लूँ
पर अपने सिवा मैं और क्या हूँ
हो कभी तो शराब-ए-वस्ल नसीब
पिए जाऊँ मैं ख़ून ही कब तक
फुलाँ से थी ग़ज़ल बेहतर फुलाँ की
फुलाँ के ज़ख़्म अच्छे थे फुलाँ से
जम्अ’ हम ने किया है ग़म दिल में
इस का अब सूद खाए जाएँगे
जान-ए-मन तेरी बे-नक़ाबी ने
आज कितने नक़ाब बेचे हैं
इक अजब आमद-ओ-शुद है कि न माज़ी है न हाल
‘जौन’ बरपा कई नस्लों का सफ़र है मुझ में
हम हैं मसरूफ़-ए-इंतिज़ाम मगर
जाने क्या इंतिज़ाम कर रहे हैं
ख़ुदा से ले लिया जन्नत का व’अदे
ये ज़ाहिद तो बड़े ही घाग निकले