अगर न ज़ोहरा-जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िंदगी कहाँ गुज़रे
सब को हम भूल गए जोश-ए-जुनूँ में लेकिन
इक तिरी याद थी ऐसी जो भुलाई न गई
तस्वीर के दो रुख़ हैं जाँ और ग़म-ए-जानाँ
इक नक़्श छुपाना है इक नक़्श दिखाना है
जिन के लिए मर भी गए हम
वो चल कर दो गाम न आए
हाए वो राज़-ए-ग़म कि जो अब तक
तेरे दिल में मिरी निगाह में है
जो न समझे नासेहो फिर उस को समझाते हो क्यूँ
साथ दीवाने के दीवाने बने जाते हो क्यूँ
ले के ख़त उन का किया ज़ब्त बहुत कुछ लेकिन
थरथराते हुए हाथों ने भरम खोल दिया
दुनिया ये दुखी है फिर भी मगर थक कर ही सही सो जाती है
तेरे ही मुक़द्दर में ऐ दिल क्यूँ चैन नहीं आराम नहीं
तूल-ए-ग़म-ए-हयात से घबरा न ऐ ‘जिगर’
ऐसी भी कोई शाम है जिस की सहर न हो
लाख आफ़्ताब पास से हो कर गुज़र गए
हम बैठे इंतिज़ार-ए-सहर देखते रहे