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जिगर मुरादाबादी के चुनिंदा शेर

मोहब्बत सुल्ह भी पैकार भी है
ये शाख़-ए-गुल भी है तलवार भी है


मिरी हस्ती है मिरी तर्ज़-ए-तमन्ना ऐ दोस्त
ख़ुद मैं फ़रियाद हूँ मेरी कोई फ़रियाद नहीं


दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल उन को सुनाई न गई
बात बिगड़ी थी कुछ ऐसी कि बनाई न गई


फूल खिले हैं गुलशन गुलशन
लेकिन अपना अपना दामन


हर तरफ़ छा गए पैग़ाम-ए-मोहब्बत बन कर
मुझ से अच्छी रही क़िस्मत मेरे अफ़्सानों की


सेहन-ए-चमन को अपनी बहारों पे नाज़ था
वो आ गए तो सारी बहारों पे छा गए


जो उन पे गुज़रती है किस ने उसे जाना है
अपनी ही मुसीबत है अपना ही फ़साना है


जहल-ए-ख़िरद ने दिन ये दिखाए
घट गए इंसाँ बढ़ गए साए


ये राज़ सुन रहे हैं इक मौज-ए-दिल-नशीं से
डूबे हैं हम जहाँ पर उभरेंगे फिर वहीं से


हज्व ने तो तिरा ऐ शैख़ भरम खोल दिया
तू तो मस्जिद में है निय्यत तिरी मय-ख़ाने में


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By: Jigar Moradabadi

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