loader image

जिगर मुरादाबादी के चुनिंदा शेर

आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था


चश्म पुर-नम ज़ुल्फ़ आशुफ़्ता निगाहें बे-क़रार
इस पशीमानी के सदक़े मैं पशीमाँ हो गया


जब मिली आँख होश खो बैठे
कितने हाज़िर-जवाब हैं हम लोग


मैं जहाँ हूँ तिरे ख़याल में हूँ
तू जहाँ है मिरी निगाह में है


बैठे हुए रक़ीब हैं दिलबर के आस-पास
काँटों का है हुजूम गुल-ए-तर के आस-पास


आई जब उन की याद तो आती चली गई
हर नक़्श-ए-मा-सिवा को मिटाती चली गई


भुलाना हमारा मुबारक मुबारक
मगर शर्त ये है न याद आईएगा


वो थे न मुझ से दूर न मैं उन से दूर था
आता न था नज़र तो नज़र का क़ुसूर था


एक दिल है और तूफ़ान-ए-हवादिस ऐ ‘जिगर’
एक शीशा है कि हर पत्थर से टकराता हूँ मैं


लाखों में इंतिख़ाब के क़ाबिल बना दिया
जिस दिल को तुम ने देख लिया दिल बना दिया


968

Add Comment

By: Jigar Moradabadi

© 2023 पोथी | सर्वाधिकार सुरक्षित

Do not copy, Please support by sharing!