आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था
चश्म पुर-नम ज़ुल्फ़ आशुफ़्ता निगाहें बे-क़रार
इस पशीमानी के सदक़े मैं पशीमाँ हो गया
जब मिली आँख होश खो बैठे
कितने हाज़िर-जवाब हैं हम लोग
मैं जहाँ हूँ तिरे ख़याल में हूँ
तू जहाँ है मिरी निगाह में है
बैठे हुए रक़ीब हैं दिलबर के आस-पास
काँटों का है हुजूम गुल-ए-तर के आस-पास
आई जब उन की याद तो आती चली गई
हर नक़्श-ए-मा-सिवा को मिटाती चली गई
भुलाना हमारा मुबारक मुबारक
मगर शर्त ये है न याद आईएगा
वो थे न मुझ से दूर न मैं उन से दूर था
आता न था नज़र तो नज़र का क़ुसूर था
एक दिल है और तूफ़ान-ए-हवादिस ऐ ‘जिगर’
एक शीशा है कि हर पत्थर से टकराता हूँ मैं
लाखों में इंतिख़ाब के क़ाबिल बना दिया
जिस दिल को तुम ने देख लिया दिल बना दिया