हुस्न को भी कहाँ नसीब ‘जिगर’
वो जो इक शय मिरी निगाह में है
सदाक़त हो तो दिल सीनों से खिंचने लगते हैं वाइ’ज़
हक़ीक़त ख़ुद को मनवा लेती है मानी नहीं जाती
दिल गया रौनक़-ए-हयात गई
ग़म गया सारी काएनात गई
उस ने अपना बना के छोड़ दिया
क्या असीरी है क्या रिहाई है
गरचे अहल-ए-शराब हैं हम लोग
ये न समझो ख़राब हैं हम लोग
कूचा-ए-इश्क़ में निकल आया
जिस को ख़ाना-ख़राब होना था
ऐ मोहतसिब न फेंक मिरे मोहतसिब न फेंक
ज़ालिम शराब है अरे ज़ालिम शराब है
दिल को सुकून रूह को आराम आ गया
मौत आ गई कि दोस्त का पैग़ाम आ गया
सभी अंदाज़-ए-हुस्न प्यारे हैं
हम मगर सादगी के मारे हैं
गुदाज़-ए-इश्क़ नहीं कम जो मैं जवाँ न रहा
वही है आग मगर आग में धुआँ न रहा