लबों पे मौज-ए-तबस्सुम निगह में बर्क़-ए-ग़ज़ब
कोई बताए ये अंदाज़-ए-बरहमी क्या है
सब पे तू मेहरबान है प्यारे
कुछ हमारा भी ध्यान है प्यारे
मेरे दर्द में ये ख़लिश कहाँ मेरे सोज़ में ये तपिश कहाँ
किसी और ही की पुकार है मिरी ज़िंदगी की सदा नहीं
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गए
ख़्वाबीदा ज़िंदगी थी जगा कर चले गए
कभी शाख़ ओ सब्ज़ा ओ बर्ग पर कभी ग़ुंचा ओ गुल ओ ख़ार पर
मैं चमन में चाहे जहाँ रहूँ मिरा हक़ है फ़स्ल-ए-बहार पर
मिरी रूदाद-ए-ग़म वो सुन रहे हैं
तबस्सुम सा लबों पर आ रहा है
सबा ये उन से हमारा पयाम कह देना
गए हो जब से यहाँ सुब्ह-ओ-शाम ही न हुई
ये रोज़ ओ शब ये सुब्ह ओ शाम ये बस्ती ये वीराना
सभी बेदार हैं इंसाँ अगर बेदार हो जाए
नियाज़ ओ नाज़ के झगड़े मिटाए जाते हैं
हम उन में और वो हम में समाए जाते हैं
जुनून-ए-मोहब्बत यहाँ तक तो पहुँचा
कि तर्क-ए-मोहब्बत किया चाहता हूँ