फ़िक्र-ए-जमील ख़्वाब-ए-परेशाँ है आज-कल
शायर नहीं है वो जो ग़ज़ल-ख़्वाँ है आज-कल
तेरी बातों से आज तो वाइज़
वो जो थी ख़्वाहिश-ए-नजात गई
कोई ये कह दे गुलशन गुलशन
लाख बलाएँ एक नशेमन
वो ख़लिश जिस से था हंगामा-ए-हस्ती बरपा
वक़्फ़-ए-बेताबी-ए-ख़ामोश हुई जाती है
मुझ को मस्त-ए-शराब होना था
मोहतसिब को कबाब होना था
सुनते थे मोहब्बत आसाँ है वल्लाह बहुत आसाँ है मगर
इस सहल में जो दुश्वारी है वो मुश्किल सी मुश्किल में नहीं
मय-कशो मुज़्दा कि बाक़ी न रही क़ैद-ए-मकाँ
आज इक मौज बहा ले गई मयख़ाने को
राहत-ए-बे-ख़लिश अगर मिल भी गई तो क्या मज़ा
तल्ख़ी-ए-ग़म भी चाहिए बादा-ए-ख़ुश-गवार में
निगाह-ए-यास मिरी काम कर गई अपना
रुला के उट्ठे थे वो मुस्कुरा के बैठ गए
निगाह-ए-शौक़ ने महशर में साफ़ ताड़ लिया
कहाँ वो छुपते कि आँखों में थे समाए हुए