ब’अद मुद्दत के ये ऐ ‘दाग़’ समझ में आया
वही दाना है कहा जिस ने न माना दिल का
न रोना है तरीक़े का न हँसना है सलीक़े का
परेशानी में कोई काम जी से हो नहीं सकता
मुझ गुनहगार को जो बख़्श दिया
तो जहन्नम को क्या दिया तू ने
बहुत रोया हूँ मैं जब से ये मैं ने ख़्वाब देखा है
कि आप आँसू बहाते सामने दुश्मन के बैठे हैं
कहीं है ईद की शादी कहीं मातम है मक़्तल में
कोई क़ातिल से मिलता है कोई बिस्मिल से मिलता है
आया था साथ ले के मोहब्बत की आफ़तें
जाएगा जान ले के ज़माना शबाब का
दिल में समा गई हैं क़यामत की शोख़ियाँ
दो-चार दिन रहा था किसी की निगाह में
शब-ए-वस्ल की क्या कहूँ दास्ताँ
ज़बाँ थक गई गुफ़्तुगू रह गई
बे-तलब जो मिला मिला मुझ को
बे-ग़रज़ जो दिया दिया तू ने
देखना हश्र में जब तुम पे मचल जाऊँगा
मैं भी क्या वादा तुम्हारा हूँ कि टल जाऊँगा