तुम अगर अपनी गूँ के हो माशूक़
अपने मतलब के यार हम भी हैं
इस लिए वस्ल से इंकार है हम जान गए
ये न समझे कोई क्या जल्द कहा मान गए
लीजिए सुनिए अब अफ़्साना-ए-फ़ुर्क़त मुझ से
आप ने याद दिलाया तो मुझे याद आया
राह पर उन को लगा लाए तो हैं बातों में
और खुल जाएँगे दो चार मुलाक़ातों में
समझो पत्थर की तुम लकीर उसे
जो हमारी ज़बान से निकला
अदम की जो हक़ीक़त है वो पूछो अहल-ए-हस्ती से
मुसाफ़िर को तो मंज़िल का पता मंज़िल से मिलता है
ग़श खा के ‘दाग़’ यार के क़दमों पे गिर पड़ा
बेहोश ने भी काम किया होशियार का
यूँ मेरे साथ दफ़्न दिल-ए-बे-क़रार हो
छोटा सा इक मज़ार के अंदर मज़ार हो
बने हैं जब से वो लैला नई महमिल में रहते हैं
जिसे दीवाना करते हैं उसी के दिल में रहते हैं
ये गुस्ताख़ी ये छेड़ अच्छी नहीं है ऐ दिल-ए-नादाँ
अभी फिर रूठ जाएँगे अभी तो मन के बैठे हैं