अर्ज़-ए-अहवाल को गिला समझे
क्या कहा मैं ने आप क्या समझे
ये तो नहीं कि तुम सा जहाँ में हसीं नहीं
इस दिल को क्या करूँ ये बहलता कहीं नहीं
नहीं खेल ऐ ‘दाग़’ यारों से कह दो
कि आती है उर्दू ज़बाँ आते आते
रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा
मुक़ीम कौन हुआ है मक़ाम किस का था
यूँ भी हज़ारों लाखों में तुम इंतिख़ाब हो
पूरा करो सवाल तो फिर ला-जवाब हो
हज़ार बार जो माँगा करो तो क्या हासिल
दुआ वही है जो दिल से कभी निकलती है
आओ मिल जाओ कि ये वक़्त न पाओगे कभी
मैं भी हम-राह ज़माने के बदल जाऊँगा
तुम को चाहा तो ख़ता क्या है बता दो मुझ को
दूसरा कोई तो अपना सा दिखा दो मुझ को
हाथ रख कर जो वो पूछे दिल-ए-बेताब का हाल
हो भी आराम तो कह दूँ मुझे आराम नहीं
उड़ गई यूँ वफ़ा ज़माने से
कभी गोया किसी में थी ही नहीं