लाख देने का एक देना था
दिल-ए-बे-मुद्दआ दिया तू ने
जिस ख़त पे ये लगाई उसी का मिला जवाब
इक मोहर मेरे पास है दुश्मन के नाम की
लज़्ज़त-ए-इश्क़ इलाही मिट जाए
दर्द अरमान हुआ जाता है
साज़ ये कीना-साज़ क्या जानें
नाज़ वाले नियाज़ क्या जानें
वो जाते हैं आती है क़यामत की सहर आज
रोता है दुआओं से गले मिल के असर आज
चाह की चितवन में आँख उस की शरमाई हुई
ताड़ ली मज्लिस में सब ने सख़्त रुस्वाई हुई
जली हैं धूप में शक्लें जो माहताब की थीं
खिंची हैं काँटों पे जो पत्तियाँ गुलाब की थीं
सुनाई जाती हैं दर-पर्दा गालियाँ मुझ को
कहूँ जो मैं तो कहे आप से कलाम नहीं
जल्वे मिरी निगाह में कौन-ओ-मकाँ के हैं
मुझ से कहाँ छुपेंगे वो ऐसे कहाँ के हैं
जोश-ए-रहमत के वास्ते ज़ाहिद
है ज़रा सी गुनाह-गारी शर्त