हज़रत-ए-‘दाग़’ है ये कूचा-ए-क़ातिल उठिए
जिस जगह बैठते हैं आप तो जम जाते हैं
ईद है क़त्ल मिरा अहल-ए-तमाशा के लिए
सब गले मिलने लगे जब कि वो जल्लाद आया
मुझ को मज़ा है छेड़ का दिल मानता नहीं
गाली सुने बग़ैर सितम-गर कहे बग़ैर
मा’रका है आज हुस्न ओ इश्क़ का
देखिए वो क्या करें हम क्या करें
ग़म्ज़ा भी हो सफ़्फ़ाक निगाहें भी हों ख़ूँ-रेज़
तलवार के बाँधे से तो क़ातिल नहीं होता
कब निकलता है अब जिगर से तीर
ये भी क्या तेरी आश्नाई है
फिरे राह से वो यहाँ आते आते
अजल मर रही तू कहाँ आते आते
हो सके क्या अपनी वहशत का इलाज
मेरे कूचे में भी सहरा चाहिए
कोई छींटा पड़े तो ‘दाग़’ कलकत्ते चले जाएँ
अज़ीमाबाद में हम मुंतज़िर सावन के बैठे हैं
ऐ दाग़ अपनी वज़्अ’ हमेशा यही रही
कोई खिंचा खिंचे कोई हम से मिला मिले