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दाग़ देहलवी के चुनिंदा शेर

जो गुज़रते हैं ‘दाग़’ पर सदमे
आप बंदा-नवाज़ क्या जानें


अब तो बीमार-ए-मोहब्बत तेरे
क़ाबिल-ए-ग़ौर हुए जाते हैं


जो तुम्हारी तरह तुम से कोई झूटे वादे करता
तुम्हीं मुंसिफ़ी से कह दो तुम्हें ए’तिबार होता


क्या पूछते हो कौन है ये किस की है शोहरत
क्या तुम ने कभी ‘दाग़’ का दीवाँ नहीं देखा


भवें तनती हैं ख़ंजर हाथ में है तन के बैठे हैं
किसी से आज बिगड़ी है कि वो यूँ बन के बैठे हैं


न समझा उम्र गुज़री उस बुत-ए-काफ़र को समझाते
पिघल कर मोम हो जाता अगर पत्थर को समझाते


वो कहते हैं क्या ज़ोर उठाओगे तुम ऐ ‘दाग़’
तुम से तो मिरा नाज़ उठाया नहीं जाता


ईमान की तो ये है कि ईमान अब कहाँ
काफ़िर बना गई तिरी काफ़िर-नज़र मुझे


रूह किस मस्त की प्यासी गई मय-ख़ाने से
मय उड़ी जाती है साक़ी तिरे पैमाने से


दिल ले के उन की बज़्म में जाया न जाएगा
ये मुद्दई बग़ल में छुपाया न जाएगा


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By: Dagh Dehlvi

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