ना-उमीदी बढ़ गई है इस क़दर
आरज़ू की आरज़ू होने लगी
दी मुअज़्ज़िन ने शब-ए-वस्ल अज़ाँ पिछले पहर
हाए कम्बख़्त को किस वक़्त ख़ुदा याद आया
रुख़-ए-रौशन के आगे शम्अ रख कर वो ये कहते हैं
उधर जाता है देखें या इधर परवाना आता है
हज़रत-ए-दाग़ जहाँ बैठ गए बैठ गए
और होंगे तिरी महफ़िल से उभरने वाले
कोई नाम-ओ-निशाँ पूछे तो ऐ क़ासिद बता देना
तख़ल्लुस ‘दाग़’ है वो आशिक़ों के दिल में रहते हैं
ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
झूटी क़सम से आप का ईमान तो गया
साथ शोख़ी के कुछ हिजाब भी है
इस अदा का कहीं जवाब भी है
देखना अच्छा नहीं ज़ानू पे रख कर आइना
दोनों नाज़ुक हैं न रखियो आईने पर आइना
दिल ले के मुफ़्त कहते हैं कुछ काम का नहीं
उल्टी शिकायतें हुईं एहसान तो गया
ये सैर है कि दुपट्टा उड़ा रही है हवा
छुपाते हैं जो वो सीना कमर नहीं छुपती