क्या इज़्तिराब-ए-शौक़ ने मुझ को ख़जिल किया
वो पूछते हैं कहिए इरादे कहाँ के हैं
सुन के मिरा फ़साना उन्हें लुत्फ़ आ गया
सुनता हूँ अब कि रोज़ तलब क़िस्सा-ख़्वाँ की है
क्या लुत्फ़-ए-दोस्ती कि नहीं लुत्फ़-ए-दुश्मनी
दुश्मन को भी जो देखिए पूरा कहाँ है अब
रोज़-ओ-शब मुझ को है यही धड़का
न मिलोगे मिलोगे क्या होगा
क्या बैठना क्या उठना क्या बोलना क्या हँसना
हर आन में काफ़िर की इक आन निकलती है
शिरकत-ए-ग़म भी नहीं चाहती ग़ैरत मेरी
ग़ैर की हो के रहे या शब-ए-फ़ुर्क़त मेरी
मैं कहा अहद क्या किया था रात
हँस के कहने लगा कि याद नहीं
ग़ज़ब है मुद्दई जो हो वही फिर मुद्दआ’ ठहरे
जो अपना दुश्मन-ए-दिल हो वही दिल की दवा ठहरे
कर रहा है इलाज-ए-वहशत-ए-दिल
चारागर की दवा करे कोई
क्या सुनाते हो कि है हिज्र में जीना मुश्किल
तुम से बरहम पे मरने से तो आसाँ होगा