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दाग़ देहलवी के चुनिंदा शेर

क्या इज़्तिराब-ए-शौक़ ने मुझ को ख़जिल किया
वो पूछते हैं कहिए इरादे कहाँ के हैं


सुन के मिरा फ़साना उन्हें लुत्फ़ आ गया
सुनता हूँ अब कि रोज़ तलब क़िस्सा-ख़्वाँ की है


क्या लुत्फ़-ए-दोस्ती कि नहीं लुत्फ़-ए-दुश्मनी
दुश्मन को भी जो देखिए पूरा कहाँ है अब


रोज़-ओ-शब मुझ को है यही धड़का
न मिलोगे मिलोगे क्या होगा


क्या बैठना क्या उठना क्या बोलना क्या हँसना
हर आन में काफ़िर की इक आन निकलती है


शिरकत-ए-ग़म भी नहीं चाहती ग़ैरत मेरी
ग़ैर की हो के रहे या शब-ए-फ़ुर्क़त मेरी


मैं कहा अहद क्या किया था रात
हँस के कहने लगा कि याद नहीं


ग़ज़ब है मुद्दई जो हो वही फिर मुद्दआ’ ठहरे
जो अपना दुश्मन-ए-दिल हो वही दिल की दवा ठहरे


कर रहा है इलाज-ए-वहशत-ए-दिल
चारागर की दवा करे कोई


क्या सुनाते हो कि है हिज्र में जीना मुश्किल
तुम से बरहम पे मरने से तो आसाँ होगा


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By: Dagh Dehlvi

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