दाग़ इक आदमी है गर्मा-गर्म
ख़ुश बहुत होंगे जब मिलेंगे आप
हो चुका ऐश का जल्सा तो मुझे ख़त भेजा
आप की तरह से मेहमान बुलाए कोई
कहना किसी का सुब्ह-ए-शब-ए-वस्ल नाज़ से
हसरत तुम्हारी जान हमारी निकल गई
फ़सुर्दा-दिल कभी ख़ल्वत न अंजुमन में रहे
बहार हो के रहे हम तो जिस चमन में रहे
हसरतें ले गए इस बज़्म से चलने वाले
हाथ मलते ही उठे इत्र के मलने वाले
मर्ग-ए-दुश्मन का ज़ियादा तुम से है मुझ को मलाल
दुश्मनी का लुत्फ़ शिकवों का मज़ा जाता रहा
वो जब चले तो क़यामत बपा थी चारों तरफ़
ठहर गए तो ज़माने को इंक़लाब न था
फिरता है मेरे दिल में कोई हर्फ़-ए-मुद्दआ
क़ासिद से कह दो और न जाए ज़रा सी देर
निगह निकली न दिल की चोर ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं निकली
इधर ला हाथ मुट्ठी खोल ये चोरी यहीं निकली
तबीअ’त कोई दिन में भर जाएगी
चढ़ी है ये नद्दी उतर जाएगी