‘दाग़’ को कौन देने वाला था
जो दिया ऐ ख़ुदा दिया तू ने
तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था
हम भी क्या ज़िंदगी गुज़ार गए
दिल की बाज़ी लगा के हार गए
उन की फ़रमाइश नई दिन रात है
और थोड़ी सी मिरी औक़ात है
आती है बात बात मुझे बार बार याद
कहता हूँ दौड़ दौड़ के क़ासिद से राह में
सबक़ ऐसा पढ़ा दिया तू ने
दिल से सब कुछ भुला दिया तू ने
आप पछताएँ नहीं जौर से तौबा न करें
आप के सर की क़सम ‘दाग़’ का हाल अच्छा है
ज़माने के क्या क्या सितम देखते हैं
हमीं जानते हैं जो हम देखते हैं
डरता हूँ देख कर दिल-ए-बे-आरज़ू को मैं
सुनसान घर ये क्यूँ न हो मेहमान तो गया
ख़ुदा की क़सम उस ने खाई जो आज
क़सम है ख़ुदा की मज़ा आ गया