ले चला जान मिरी रूठ के जाना तेरा
ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा
बड़ा मज़ा हो जो महशर में हम करें शिकवा
वो मिन्नतों से कहें चुप रहो ख़ुदा के लिए
जिन को अपनी ख़बर नहीं अब तक
वो मिरे दिल का राज़ क्या जानें
लुत्फ़-ए-मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद
हाए कम-बख़्त तू ने पी ही नहीं
साक़िया तिश्नगी की ताब नहीं
ज़हर दे दे अगर शराब नहीं
उर्दू है जिस का नाम हमीं जानते हैं ‘दाग़’
हिन्दोस्ताँ में धूम हमारी ज़बाँ की है
कहने देती नहीं कुछ मुँह से मोहब्बत मेरी
लब पे रह जाती है आ आ के शिकायत मेरी
जिस में लाखों बरस की हूरें हों
ऐसी जन्नत को क्या करे कोई
ये तो कहिए इस ख़ता की क्या सज़ा
मैं जो कह दूँ आप पर मरता हूँ मैं
ज़िद हर इक बात पर नहीं अच्छी
दोस्त की दोस्त मान लेते हैं