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दाग़ देहलवी के चुनिंदा शेर

मेरे क़ाबू में न पहरों दिल-ए-नाशाद आया
वो मिरा भूलने वाला जो मुझे याद आया


क़त्ल की सुन के ख़बर ईद मनाई मैं ने
आज जिस से मुझे मिलना था गले मिल आया


इस अदा से वो जफ़ा करते हैं
कोई जाने कि वफ़ा करते हैं


मिरी बंदगी से मिरे जुर्म अफ़्ज़ूँ
तिरे क़हर से तेरी रहमत ज़ियादा


चाक हो पर्दा-ए-वहशत मुझे मंज़ूर नहीं
वर्ना ये हाथ गिरेबान से कुछ दूर नहीं


दुनिया में जानता हूँ कि जन्नत मुझे मिली
राहत अगर ज़रा सी मुसीबत में मिल गई


नासेह ने मेरा हाल जो मुझ से बयाँ किया
आँसू टपक पड़े मिरे बे-इख़्तियार आज


ठोकर भी राह-ए-इश्क़ में खानी ज़रूर है
चलता नहीं हूँ राह को हमवार देख कर


फिर गया जब से कोई आ के हमारे दर तक
घर के बाहर ही पड़े रहते हैं घर छोड़ दिया


साफ़ कह दीजिए वादा ही किया था किस ने
उज़्र क्या चाहिए झूटों के मुकरने के लिए


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By: Dagh Dehlvi

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