कुछ हो रहेगा इश्क़-ओ-हवस में भी इम्तियाज़
आया है अब मिज़ाज तिरा इम्तिहान पर
क़बा-ए-लाला-ओ-गुल में झलक रही थी ख़िज़ाँ
भरी बहार में रोया किए बहार को हम
हुस्न था तेरा बहुत आलम-फ़रेब
ख़त के आने पर भी इक आलम रहा
ये फ़न्न-ए-इश्क़ है आवे उसे तीनत में जिस की हो
तू ज़ाहिद पीर-ए-नाबालिग़ है बे-तह तुझ को क्या आवे
रात तो सारी गई सुनते परेशाँ-गोई
‘मीर’-जी कोई घड़ी तुम भी तो आराम करो
सदा हम तो खोए गए से रहे
कभू आप में तुम ने पाया हमें
कैफ़िय्यतें अत्तार के लौंडे में बहुत थीं
इस नुस्ख़े की कोई न रही हैफ़ दवा याद
उस पे तकिया किया तो था लेकिन
रात दिन हम थे और बिस्तर था
वे दिन गए कि आँखें दरिया सी बहतियाँ थीं
सूखा पड़ा है अब तो मुद्दत से ये दो-आबा
ख़राब रहते थे मस्जिद के आगे मय-ख़ाने
निगाह-ए-मस्त ने साक़ी की इंतिक़ाम लिया