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मीर तक़ी मीर के चुनिंदा शेर

कौन कहता है न ग़ैरों पे तुम इमदाद करो
हम फ़रामोशियों को भी कभू याद करो


कैसा चमन कि हम से असीरों को मनअ’ है
चाक-ए-क़फ़स से बाग़ की दीवार देखना


आवरगान-ए-इश्क़ का पूछा जो मैं निशाँ
मुश्त-ए-ग़ुबार ले के सबा ने उड़ा दिया


नाज़ुक-मिज़ाज आप क़यामत हैं ‘मीर’ जी
जूँ शीशा मेरे मुँह न लगो मैं नशे में हूँ


मरसिए दिल के कई कह के दिए लोगों को
शहर-ए-दिल्ली में है सब पास निशानी उस की


उस के ईफ़ा-ए-अहद तक न जिए
उम्र ने हम से बेवफ़ाई की


अब मुझ ज़ईफ़-ओ-ज़ार को मत कुछ कहा करो
जाती नहीं है मुझ से किसू की उठाई बात


शफ़क़ से हैं दर-ओ-दीवार ज़र्द शाम-ओ-सहर
हुआ है लखनऊ इस रहगुज़र में पीलीभीत


चाह का दावा सब करते हैं मानें क्यूँकर बे-आसार
अश्क की सुर्ख़ी मुँह की ज़र्दी इश्क़ की कुछ तो अलामत हो


बाल-ओ-पर भी गए बहार के साथ
अब तवक़्क़ो नहीं रिहाई की


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By: Mir Taqi Mir

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