ये तवहहुम का कार-ख़ाना है
याँ वही है जो ए’तिबार क्या
क्या उस आतिश-बाज़ के लौंडे का इतना शौक़ मीर
बह चली है देख कर उस को तुम्हारी राल कुछ
मअरका गर्म तो हो लेने दो ख़ूँ-रेज़ी का
पहले शमशीर के नीचे हमीं जा बैठेंगे
हर क़दम पर थी उस की मंज़िल लेक
सर से सौदा-ए-जुस्तजू न गया
लिखते रुक़आ लिखे गए दफ़्तर
शौक़ ने बात क्या बढ़ाई है
रफ़्तगाँ में जहाँ के हम भी हैं
साथ उस कारवाँ के हम भी हैं
गर ठहरे मलक आगे उन्हों के तो अजब है
फिरते हैं पड़े दिल्ली के लौंडे जो परी से
हैं अनासिर की ये सूरत-बाज़ियाँ
शो’बदे क्या क्या हैं उन चारों के बीच
गर परस्तिश ख़ुदा की साबित की
किसू सूरत में हो भला है इश्क़
मुँह खोले तो रोज़ है रौशन ज़ुल्फ़ बिखेरे रात है फिर
इन तौरों से आशिक़ क्यूँ-कर सुब्ह को अपनी शाम करें