हम ने जाना था लिखेगा तू कोई हर्फ़ ऐ ‘मीर’
पर तिरा नामा तो इक शौक़ का दफ़्तर निकला
‘मीर’ को क्यूँ न मुग़्तनिम जाने
अगले लोगों में इक रहा है ये
फ़ुर्सत में इक नफ़स के क्या दर्द-ए-दिल सुनोगे
आए तो तुम व-लेकिन वक़्त-ए-अख़ीर आए
काबे में जाँ-ब-लब थे हम दूरी-ए-बुताँ से
आए हैं फिर के यारो अब के ख़ुदा के हाँ से
बाहम हुआ करें हैं दिन रात नीचे ऊपर
ये नर्म-शाने लौंडे हैं मख़मल-ए-दो-ख़्वाबा
मेहर-ओ-मह गुल फूल सब थे पर हमें
चेहरई चेहरा हमें भाता रहा
क्या जानूँ चश्म-ए-तर से उधर दिल को क्या हुआ
किस को ख़बर है ‘मीर’ समुंदर के पार की
क्या आज-कल से उस की ये बे-तवज्जोही है
मुँह उन ने इस तरफ़ से फेरा है ‘मीर’ कब का
अब आया ध्यान ऐ आराम-ए-जाँ इस ना-मुरादी में
कफ़न देना तुम्हें भूले थे हम अस्बाब-ए-शादी में
दावा किया था गुल ने तिरे रुख़ से बाग़ में
सैली लगी सबा की तो मुँह लाल हो गया