‘मीर’ के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया
दिल मुझे उस गली में ले जा कर
और भी ख़ाक में मिला लाया
ले साँस भी आहिस्ता कि नाज़ुक है बहुत काम
आफ़ाक़ की इस कारगह-ए-शीशागरी का
जिन जिन को था ये इश्क़ का आज़ार मर गए
अक्सर हमारे साथ के बीमार मर गए
हम जानते तो इश्क़ न करते किसू के साथ
ले जाते दिल को ख़ाक में इस आरज़ू के साथ
गुफ़्तुगू रेख़्ते में हम से न कर
ये हमारी ज़बान है प्यारे
‘मीर’ उन नीम-बाज़ आँखों में
सारी मस्ती शराब की सी है
सख़्त काफ़िर था जिन ने पहले ‘मीर’
मज़हब-ए-इश्क़ इख़्तियार किया
उम्र गुज़री दवाएँ करते ‘मीर’
दर्द-ए-दिल का हुआ न चारा हनूज़
उस के फ़रोग़-ए-हुस्न से झमके है सब में नूर
शम-ए-हरम हो या हो दिया सोमनात का