‘मीर’ साहब तुम फ़रिश्ता हो तो हो
आदमी होना तो मुश्किल है मियाँ
हमारे आगे तिरा जब किसू ने नाम लिया
दिल-ए-सितम-ज़दा को हम ने थाम थाम लिया
बे-ख़ुदी ले गई कहाँ हम को
देर से इंतिज़ार है अपना
दिखाई दिए यूँ कि बे-ख़ुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले
सिरहाने ‘मीर’ के कोई न बोलो
अभी टुक रोते रोते सो गया है
गुल हो महताब हो आईना हो ख़ुर्शीद हो मीर
अपना महबूब वही है जो अदा रखता हो
नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आप करें हैं हम को अबस बदनाम किया
दिल्ली में आज भीक भी मिलती नहीं उन्हें
था कल तलक दिमाग़ जिन्हें ताज-ओ-तख़्त का
अब कर के फ़रामोश तो नाशाद करोगे
पर हम जो न होंगे तो बहुत याद करोगे
क्या कहें कुछ कहा नहीं जाता
अब तो चुप भी रहा नहीं जाता