शर्त सलीक़ा है हर इक अम्र में
ऐब भी करने को हुनर चाहिए
वस्ल में रंग उड़ गया मेरा
क्या जुदाई को मुँह दिखाऊँगा
मिरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में
तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया
यही जाना कि कुछ न जाना हाए
सो भी इक उम्र में हुआ मालूम
इश्क़ में जी को सब्र ओ ताब कहाँ
उस से आँखें लड़ीं तो ख़्वाब कहाँ
‘मीर’ बंदों से काम कब निकला
माँगना है जो कुछ ख़ुदा से माँग
‘मीर’ हम मिल के बहुत ख़ुश हुए तुम से प्यारे
इस ख़राबे में मिरी जान तुम आबाद रहो
इश्क़ माशूक़ इश्क़ आशिक़ है
यानी अपना ही मुब्तला है इश्क़
जब कि पहलू से यार उठता है
दर्द बे-इख़्तियार उठता है
अमीर-ज़ादों से दिल्ली के मिल न ता-मक़्दूर
कि हम फ़क़ीर हुए हैं इन्हीं की दौलत से