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मीर तक़ी मीर के चुनिंदा शेर

सारे आलम पर हूँ मैं छाया हुआ
मुस्तनद है मेरा फ़रमाया हुआ


जाए है जी नजात के ग़म में
ऐसी जन्नत गई जहन्नम में


तुझी पर कुछ ऐ बुत नहीं मुनहसिर
जिसे हम ने पूजा ख़ुदा कर दिया


तुझ को मस्जिद है मुझ को मय-ख़ाना
वाइज़ा अपनी अपनी क़िस्मत है


यूँ उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है


देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है


बुलबुल ग़ज़ल-सराई आगे हमारे मत कर
सब हम से सीखते हैं अंदाज़ गुफ़्तुगू का


कहते तो हो यूँ कहते यूँ कहते जो वो आता
ये कहने की बातें हैं कुछ भी न कहा जाता


इश्क़ करते हैं उस परी-रू से
‘मीर’ साहब भी क्या दिवाने हैं


ये जो मोहलत जिसे कहे हैं उम्र
देखो तो इंतिज़ार सा है कुछ


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By: Mir Taqi Mir

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