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मीर तक़ी मीर के चुनिंदा शेर

चमन में गुल ने जो कल दावा-ए-जमाल किया
जमाल-ए-यार ने मुँह उस का ख़ूब लाल किया


कुछ नहीं सूझता हमें उस बिन
शौक़ ने हम को बे-हवास किया


अब के जुनूँ में फ़ासला शायद न कुछ रहे
दामन के चाक और गिरेबाँ के चाक में


इश्क़ है तर्ज़ ओ तौर इश्क़ के तईं
कहीं बंदा कहीं ख़ुदा है इश्क़


पैदा कहाँ हैं ऐसे परागंदा-तब्अ लोग
अफ़सोस तुम को ‘मीर’ से सोहबत नहीं रही


लाया है मिरा शौक़ मुझे पर्दे से बाहर
मैं वर्ना वही ख़ल्वती-ए-राज़-ए-निहाँ हूँ


वस्ल उस का ख़ुदा नसीब करे
‘मीर’ दिल चाहता है क्या क्या कुछ


सरापा आरज़ू होने ने बंदा कर दिया हम को
वगर्ना हम ख़ुदा थे गर दिल-ए-बे-मुद्दआ होते


ख़ुदा को काम तो सौंपे हैं मैं ने सब लेकिन
रहे है ख़ौफ़ मुझे वाँ की बे-नियाज़ी का


जिस सर को ग़ुरूर आज है याँ ताज-वरी का
कल उस पे यहीं शोर है फिर नौहागरी का


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By: Mir Taqi Mir

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