काम थे इश्क़ में बहुत पर ‘मीर’
हम ही फ़ारिग़ हुए शिताबी से
बहुत कुछ कहा है करो ‘मीर’ बस
कि अल्लाह बस और बाक़ी हवस
आदम-ए-ख़ाकी से आलम को जिला है वर्ना
आईना था तो मगर क़ाबिल-ए-दीदार न था
रोज़ आने पे नहीं निस्बत-ए-इश्क़ी मौक़ूफ़
उम्र भर एक मुलाक़ात चली जाती है
कासा-ए-चश्म ले के जूँ नर्गिस
हम ने दीदार की गदाई की
सब पे जिस बार ने गिरानी की
उस को ये ना-तवाँ उठा लाया
कुछ करो फ़िक्र मुझ दीवाने की
धूम है फिर बहार आने की
मुझे काम रोने से अक्सर है नासेह
तू कब तक मिरे मुँह को धोता रहेगा
जौर क्या क्या जफ़ाएँ क्या क्या हैं
आशिक़ी में बलाएँ क्या क्या हैं
जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम
सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले