loader image

मीर तक़ी मीर के चुनिंदा शेर

‘मीर’-जी ज़र्द होते जाते हो
क्या कहीं तुम ने भी किया है इश्क़


कहा मैं ने गुल का है कितना सबात
कली ने ये सुन कर तबस्सुम किया


लेते ही नाम उस का सोते से चौंक उठ्ठे
है ख़ैर ‘मीर’-साहिब कुछ तुम ने ख़्वाब देखा


इश्क़ का घर है ‘मीर’ से आबाद
ऐसे फिर ख़ानमाँ-ख़राब कहाँ


कोहकन क्या पहाड़ तोड़ेगा
इश्क़ ने ज़ोर-आज़माई की


मसाइब और थे पर दिल का जाना
अजब इक सानेहा सा हो गया है


दूर बैठा ग़ुबार-ए-‘मीर’ उस से
इश्क़ बिन ये अदब नहीं आता


आए हो घर से उठ कर मेरे मकाँ के ऊपर
की तुम ने मेहरबानी बे-ख़ानुमाँ के ऊपर


मैं जो बोला कहा कि ये आवाज़
उसी ख़ाना-ख़राब की सी है


था मुस्तआर हुस्न से उस के जो नूर था
ख़ुर्शीद में भी उस ही का ज़र्रा ज़ुहूर था


958

Add Comment

By: Mir Taqi Mir

© 2023 पोथी | सर्वाधिकार सुरक्षित

Do not copy, Please support by sharing!